निमाड़ में मुख्य रूप से बलाई समाज के कलाकार काठी नृत्य करते हैं। इस नृत्य में बांस से ‘काठी’ सजाई जाती है। इसका कपड़े, मोरपंख से श्रृंगार कर पूजन किया जाता है। इसके पश्चात समूह के सदस्य चटख रंग की वेशभूषा पहनते हैं। इसे बागा कहते हैं। दल में शामिल बड़ा भगत तथा सहायक नर्तक को छोटा भगत कहा जाता है। इनके अलावा एक व्यक्ति सजी-धजी काठी माता को उठा कर नर्तक दल के साथ चलता है। इसे ‘रजाल्या’ (सेवक) कहते हैं।
निमाड़ का सांस्कृतिक रंग लिए पारंपरिक कला कलगी-तुर्रा का स्वरूप अब भी बरकरार है। निमाड़ की कला और ग्रामीण परिवेश में बसी इस पारंपरिक कला का आज भी एक विशेषज्ञ जाजम है। इस कला में दो गायक दल होते हैं- एक को कलगी तथा दूसरे को तुर्रा दल कहा जाता है। दोनों दलों में साज-बाज के साथ गायक, गीतकार और साथी कलाकार होते हैं। श्रीगणेश व सरस्वती वंदना के बाद दोनों दल अपने ईष्ट देव को प्रसन्न करते हैं। तत्पश्चात दोनों दलों के बीच लगातार श्रेष्ठ गीत प्रस्तुत करने की स्पर्धा होती है।