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खरगौन (निमाड़) की लोक कलाएँ

गम्मत

गम्मत

नवदुर्गा उत्सव में पहले गांवाें में गम्मत होती थी। अब यह विधा कम दिखाई देती है। गम्मत निमाड़ी बोली की नाट्य कला है। इसमें कलाकार निमाड़ी में संवाद और अभिनय कर अपनी बात प्रभावी रूप से रखते हैं। इसके जवाब में दूसरा व्यक्ति भी अपना पक्ष रखता है। दर्शकों को जोड़कर रखने के लिए इसमें हास्य का पुट भी होता है। गम्मत के साथ ही स्वांग भी रचा जाता है। इस विधा में किसी एक पात्र का स्वांग रखकर कलाकार प्रस्तुति देता है। गम्मत कलाकार शोभाराम वासुरे मंडलेश्वर पिछले 50 सालों से इस विधा से जुड़े हैं। उनके अनुसार यह विधा नृत्य, गायन और नाटक का संगम है। हारमोनियम, तबला, ढोलक पर गायन के साथ ही नाटक का मंचन किया जाता है। 10 से 12 कलाकार होते हैं। इनमें दो या तीन मुख्य किरदार निभाते हैं। परपरांगत रूप से इस विधा को वे आगे बढ़ा रहे हैं। विशेष आयोजनों पर कई मंचों पर गम्मत की प्रस्तुति देे चुके हैं।

 

काठी नृत्य

काठी नृत्य

अखिल निमाड़ लोक परिषद के अध्यक्ष कुंवर उदयसिंह अनुज बताते हैं कि निमाड़ में मुख्य रूप से बलाई समाज के कलाकार काठी नृत्य करते हैं। इस नृत्य में बांस से ‘काठी’ सजाई जाती है। इसका कपड़े, मोरपंख से श्रृंगार कर पूजन किया जाता है। इसके पश्चात समूह के सदस्य चटख रंग की वेशभूषा पहनते हैं। इसे बागा कहते हैं। दल में शामिल बड़ा भगत तथा सहायक नर्तक को छोटा भगत कहा जाता है। इनके अलावा एक व्यक्ति सजी-धजी काठी माता को उठा कर नर्तक दल के साथ चलता है। इसे ‘रजाल्या’ (सेवक) कहते हैं। संगीत के लिए मुख्य वाद्य यंत्र ‘ढाक’ होता है जो छोटी झुग्गी के आकार का होता है। इसके साथ पीतल की थाली को तालबद्ध बजाया जाता है। काठी गीतों की कथा वस्तु पौराणिक ऐतिहासिक होती है। इनमें चार लोक गाथाएं प्रमुख हैं। राजा हरिश्चंद्र, सुरियाजो महाजन, गोंडेणनार तथा भीलणों बाल-कथा निमाड़ी बोली का ठेठपन काठी गीतों का प्राण है। यह दल गांव-गांव घर-घर जाकर मातृशक्ति पार्वती की पूजा स्तुति के गीत ‘निमाड़ी बोली’ में गाते हैं। बदले में ग्रामीण जन इन्हें अन्न-वस्त्र दान देते हैं जो इनकी जीविका का आधार होता है। देव प्रबोधिनी एकादशी से प्रारम्भ हेाकर महाशिवरात्रि तक चार माह चलने वाला यह पवित्र नृत्य अनुष्ठान पचमढ़ी के महादेव मंदिर में समाप्त होता है। सुविधा अनुसार दल बीजागढ़ महादेव, सिरवेल महादेव आदि मंदिरों में भी समापन करते रहे हैं। काठी लोकनाट्य के नर्तक दल निमाड़ में अनेक गांवों में फैले हुए हैं। इन चार माह के अलावा बाकी समय में नर्तक दल मेहनत-मजदूरी करके जीवन-यापन करते हैं।

 

कलगी-तुर्रा

कलगी-तुर्रा

निमाड़ का सांस्कृतिक रंग लिए पारंपरिक कला कलगी-तुर्रा का स्वरूप अब भी बरकरार है। निमाड़ की कला और ग्रामीण परिवेश में बसी इस पारंपरिक कला का आज भी एक विशेषज्ञ जाजम है। इस कला में दो गायक दल होते हैं- एक को कलगी तथा दूसरे को तुर्रा दल कहा जाता है। दोनों दलों में साज-बाज के साथ गायक, गीतकार और साथी कलाकार होते हैं। श्रीगणेश व माँ सरस्वती वंदना के बाद दोनों दल अपने ईष्ट देव को प्रसन्न करते हैं। तत्पश्चात दोनों दलों के बीच लगातार श्रेष्ठ गीत प्रस्तुत करने की स्पर्धा होती है। मुकाबले के दौरान ही पार्टी के गायक और गीतकार दूसरी पार्टी की प्रस्तुति के समय में अपना गीत लिखकर प्रस्तुति देते हैं। गीतों की श्रेष्ठता का निर्णय श्रोताओं द्वारा किया जाता है। राजघरानों की शान में शुरू हुई इस परंपरा में दोनों दलों के मुखियाओं को क्रमश: कलगी और तुर्रा से नवाजकर दलों को नई पहचान देने का इतिहास भी मिलता है।  ग्रामीण क्षेत्रों के अलावा निमाड़ में विशेष आयोजनों में कलगी तुर्रा का आयोजन होता है। तुर्रा गायक शिवराम जी कुशवाह मगरिया, कलगी गायक यशवंत जी यादव रामपुरा आदि प्रमुख लोकगीत गायक है।

 

सौजन्य: श्री अमित भटोरे, नई दुनिया